▶️ शाबान के महीने में मशहूर शबे बारात की क्या हक़ीक़त है??
📄 इस सवाल का जवाब जानने के लिये ये मुख़्तसर मज़मून (लेख) ज़रूर पढ़ें
✔️ और हर मुसलमान को ये ज़रूर शेयर करें जिससे कि उम्मत इस गुमराही से बच सके।।
शब-ए-बारात : सुन्नत या बिदअत
🇮🇳 हिन्दुस्तान को त्योहारों का देश कहा जाता है । यहाँ पर लगभग हर दिन कोई ना कोई त्यौहार मनाया जाता रहता है । शायद हिंदुस्तान की इसी विशेषता से प्रभावित होकर यहाँ के कुछ मुसलमानों ने भी बहुत से त्यौहार बना लिये।
📄 मगर दीन-ए-इस्लाम का गहराई से मुताअला (Study) किया जाए तो मालूम होता है कि इस्लाम ने केवल दो ही त्यौहारों की इजाज़त दी है एक ईद-उल-फ़ितर और दूसरी ईद-उल-अज़हा। लेकिन मुसलमानो को देखा जाए तो आये दिन ये कोई ना कोई त्योहार मनाते रहते है । इन मनघड़ंत त्यौहारों में से एक शबे बरात भी है । इस रात को नौजवान जो हुड़दंग मचाते है उससे तो पूरी दुनिया वाक़िफ़ है । इससे हमारा दावती किरदार तो मज़रूह (ख़राब) होता ही है, बहुत से लोगो की जान माल का नुक़सान भी होता है । पुलिस प्रशासन इस मामले को धार्मिक मामला समझ कर बहुत ज़्यादा सख़्ती भी नही करता है । इस लेख में शबे बरात से जुड़ी आस्था और इस से फ़ैलने वाली गुमराही की हक़ीकत बयान की जा रही है ताकि दीन-ए-इस्लाम से हक़ीक़ी वाबस्तगी हो सके ।
1️⃣ कुरआन का नाज़िल होना:
🔆 कहा जाता है कि इस रात क़ुरआन नाज़िल हुआ था । ये एक बे-बुनियाद बात है जो कि क़ुरआन मजीद के बिल्कुल ख़िलाफ़ है। क़ुरआन मजीद की सुरह अल – क़द्र में साफ़ साफ़ कहा गया हैं कि :
🌙 ”हम ( अल्लाह ) ने क़ुरआन को शबे कद्र में नाज़िल किया”
📙 अल कुरआन 97:01
🔹 एक दूसरी जगह कहा गया है कि :
🌟 ”रमज़ान वो महीना है जिस में क़ुरआन नाज़िल किया गया.”
📙 अल कुरआन 2 : 185
📌 इससे ये बात साफ़ हो जाती है कि जब क़ुरआन रमज़ान के महीने में नाज़िल किया गया है तो वो रात यानी शबे क़द्र भी रमज़ान ही में होगी। यही बात हदीस में भी कही गयी है । सहीह बुख़ारी की एक हदीस में अल्लाह के रसूल मुहम्मद सल्ल. ने फ़रमाया :
🌟 ”शबे क़द्र को रमज़ान के आख़िरी अशरे (दस दिनों) की ताक (विषम) रातों में तलाश करो।”
📕 सहीह अल-बुख़ारी : 2017
✒️ कुरआन और हदीस के अलावा बहुत से क़ुरआन के मुफ़स्सिरीन, मुहद्दिसीन और उलमा-ए-किराम ने भी यही कहा है कि क़ुरआन रमज़ान के महीने में नाज़िल हुआ है ना कि शाबान (शबे बरात) के महीने में । इन मुहद्दिसीन ओर मुफ़स्सिरीन में इमाम इब्ने ज़रीर तबरी, इब्ने अरबी, इमाम राज़ी, हाफिज़ इब्ने क़सीर, मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी, मौलाना आज़ाद और दीगर मुफ़स्सिरीन शामिल हैं।
✒️ मशहूर मुफस्सिर इमाम इब्ने अरबी (रह•) ने अपनी तफ़सीर अहकाम-अल-क़ुरआन में लिखा है :
📌 शाबान की पन्द्रहवीं रात के बारे में कोई भी रिवायत क़ाबिले एतमाद नहीं है । ना इसकी फ़ज़ीलत और बरकत के बारे में और ना इस बारे में कि इस रात किस्मतों के फैसले होते [तफ़सीर सूरह अद-दुख़ान : अल-अहकाम-अल-कुरआन तफ़्सीर-ए-तबरी]
👆कुरआन मजीद की (ऊपर दी गई) आयात और हदीस की तफ़सील से ये बात साफ़ हो जाती है कि क़ुरआन मजीद रमज़ान के महीने में नाज़िल हुआ है ना कि शाबान (शबे बारात) के महीने में ।
2️⃣ मुर्दो की रूहों का घर आना:
🔆 कहा जाता है कि इस रात मुर्दो की रूहें दुनिया में आती हैं। इस बात को सूरह अल – क़द्र की इस आयत से साबित किया जाता है इस रात में रूहें और फ़रिश्ते उतरते है। इस आयत के बारे में जैसा कि हम पहले बता चुके है कि ये आयत शबे क़द्र के सिलसिले में नाज़िल हुई है ना कि शबे बारात के सिलसिले में। फिर इस बात पर भी सभी मुफ़स्सिरीन का इत्तेफ़ाक है कि यहाँ रूह से मुराद रुहुल क़ुद्दुस है यानी हज़रते जिब्राईल (अलै•) है ना कि उन बुज़ुर्गों या बाबाओं की रूहें जिनसे गुमराह लोग मुरादे माँगते हैं। यह बात कि “मुर्दो की रूहें” दुनिया मे आती है क़ुरआन मजीद की उस आयत के ख़िलाफ़ है जिसमें कहा गया है कि :
“मरने के बाद क़यामत तक के लिए रूह आलम-ए-बरज़ख में रहती है”
📙 अल कुरआन 23 : 100
⚰️ मौत के बाद रूह जहाँ रखी जाती है उसे आलम – ए – बरज़ख़ कहा जाता है । इसके अलावा बहुत सी हदीसों से भी मालूम होता है कि एक बार किसी की रूह अल्लाह के पास पहुँच गयी तो अब उसके पास दुनिया में आने का कोई मौक़ा नहीं होगा। लिहाज़ा ये बात भी साफ़ हो गई की इस रात यानी शबे बरात को रूहें दुनिया में नहीं आतीं ।
3️⃣ हलवा खाना:
🍲 इस रात को हलवा बनाकर खाया जाता है । (हालाँकि कुछ वजहों से ये बिदअत अब लोगो में कम होती जा रही है, लेकिन अभी भी लोगो की एक बड़ी तादाद इस बिदअत में मुब्तिला है ।) इसकी वजह भी बड़ी मज़ाहख़ेज़ है । कहा जाता है कि चूंकि नबी सल्ल. का एक दाँत मुबारक शहीद हो गया था इसलिए उन्होंने हरीरा (पतला शोरबेदार खाना) खाया था । इसलिए हरीरा खाना या हलवा खाना सुन्नत हुआ । यह बात इसलिए मज़ाहखेज़ है कि नबी का दाँत मुबारक 7 शव्वाल 3 हि. को जंग-ए-उहद के मौक़े पर शहीद हुआ था। अब ज़रा ग़ौर करिये की नबी से हमारी मुहब्बत का हाल क्या है? कि दाँत शहीद हुआ शव्वाल के महीने में और हम हलवा खा कर दो महीने पहले ही बैठ जाते हैं। और अल्लाह के दीन की ख़ातिर कोई ऐसा काम नहीं करते कि हमारे भी दाँत टूटने की नौबत आये।
4️⃣ अल्लाह का आसमान-ए-दुनिया पर आना:
🔆 कहा जाता है कि इस रात अल्लाह आसमाने दुनिया पर आता है और अपने बन्दों की दुआओं को क़ुबूल करता है। इस सिलसिले में भी इस रात को मख़सूस करना सही नहीं है । क्योंकि सहीह बुख़ारी में हदीस के शब्द इस तरह हैं की अल्लाह के रसूल सल्ल. ने फ़रमाया :
🌟 “हमारा बुलन्द ओ बरकत वाला रब हर रात को आसमाने दुनिया पर आता है जब रात का आख़िरी तिहाई हिस्सा रह जाता है । वो कहता है कि, कोई मुझसे दुआ करने वाला है कि मैं उसकी दुआ क़ुबूल करूँ । कोई मुझ से माँगने वाला है कि मैं उसे दूँ। कोई मुझसे बख़्शिश तलब करने वाला है कि मैं उसकी बख़्शिश करूँ।”
📕 सहीह अल-बुख़ारी : 1145
📌 इस हदीस में ये बात साफ़ हो गयी कि इस रात में कोई ख़ास बात नहीं है कि इसी रात में अल्लाह आसमाने दुनिया पर आता है बल्कि अल्लाह तआला रात के आख़िरी हिस्से में यानी सुबह होने से कुछ पहले, हर रोज़ आसमाने दुनिया पर आता है और लोगों की दुआएँ सुनता है । इसलिए बन्दों को हर रात ही उठ कर तहज्जुद की नमाज़ का एहतेमाम करना चाहिए और उस वक़्त अल्लाह से दुआ करनी चाहिए।
5️⃣ लोगों का क़ब्रिस्तान जाना:
🔆 कहा जाता है कि शबे बरात यानी शाबान की 15 वीं रात को क़ब्रिस्तान जाना सुन्नत है । इस सिलसिले में ये बात तो कही जा सकती है कि क़ब्रिस्तान जाना अपने आप में एक सुन्नत है , लेकिन शाबान की 15 वीं रात को ख़ास तौर से क़ब्रिस्तान जाने वाली किसी भी हदीस को उलमा और मुहद्दिसीन सहीह और मुस्तनद नहीं मानते।
◆ इस सिलसिले में एक हदीस तो हज़रते आयशा (रजि.) से रिवायत की गई है कि :
◆ आप (रजि.) ने रात के आख़िरी हिस्से में नबी सल्ल. को बिस्तर पर नहीं पाया। जब तलाश करने निकली तो आप सल्ल. को जन्नतुल बक़ी (मदीना का क़ब्रिस्तान) में पाया ।
📕 जामेअ तिर्मिज़ी : 739,
📕अल-मिशकात उल मसाबीह : 1299
📄 इस हदीस को पहली बात तो ख़ुद इमाम तिर्मिज़ी ने ज़ईफ़ करार दिया और दीगर मुहद्दिसीन जैसे इमाम बुख़ारी और इमाम अल बानी ने भी इसे ज़ईफ़ करार दिया है ।
और किसी भी ज़ईफ़ हदीस को दलील-ए-हुज्जत नहीं बनाया जा सकता ।
🔸दूसरी बात हज़रते आयशा (रजि.) से ये रिवायत नक़ल की गई है । हज़रते आयशा (रजि.) ने ये नहीं फ़रमाया की अब पूरी उम्मत को इस रात को क़ब्रिस्तान जाना चाहिए। और न ही बाद में किसी सहाबी (रजि.) से ये साबित है कि वे इस हदीस को सुनने के बाद इस रात को मुस्तक़िल क़ब्रिस्तान जाया करते थे और क़ब्रिस्तानों में चिरागाँ किया करते थे और रात भर नवाफ़िल अदा करते थे। कुछ मुहद्दिसीन बयान करते है कि आप सल्ल. अक्सर रात के आख़िरी हिस्से में जन्नतुल बक़ी जाया करते थे। इसलिए इबरत हासिल करने के लिए क़ब्रिस्तान जाने को मुहद्दिसीन ने मुस्तहब करार दिया है। इस अमल में किसी रात को ख़ास करना सही नहीं है।
वल्लाहु आलम बिस्सवाब
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◼️इन सभी बातों से मालूम होता है कि शाबान की 15 वीं रात यानी शबे बरात को किसी भी तरह की बिदअत को मख़सूस करना , क़ब्रिस्तान जाना और वहाँ चिरागाँ करना, और रोज़ा रखने को दीने इस्लाम का हिस्सा समझना सही नहीं है। इससे साफ़ मालूम होता है कि ये सब बाते शबे क़द्र (जो कि रमज़ान के आख़िरी अशरे की 10 रातों में से एक रात है) की अहमियत को कम करने की साज़िश है, और हम मुसलमान इस साज़िश का हिस्सा बनते जा रहे है ।
📌 यह बात भी ग़ौर करने की है अगर इस रात की कोई अहमियत होती तो सहाबा (रजि.) इस पर अमल ज़रूर करते। क्योंकि नबी सल्ल. की पैरवी में सहाबा (रजि.) आज के मुसलमानों से बहुत आगे बढ़े हुए थे। सहाबा (रजि.) की तारीख़ से कोई एक वाक़िया भी हमें ऐसा नहीं मिलता जिससे ये साबित होता हो कि सहाबा (रजि.) इस रात को किसी इज्तिमाई इबादत का एहतिमाम फ़रमाते थे।
🔹 फिर ये बात भी ग़ौर करने कि है के अगर इस रात की कोई अहमियत होती तो हिन्दुस्तान, पाकिस्तान, और बंगलादेश के अलावा दीगर मुस्लिम मुल्को में भी इसका चलन होता। लेकिन हम देखते है कि दीगर मुस्लिम मुल्कों में इस रात को कोई हलचल नहीं होती और ना ही क़ब्रिस्तानो में चिरागाँ होता है। इसलिए ज़रूरी है कि ज़ईफ़ अहादीस का सहारा ले कर और क़ुरआन मजीद की आयात से ग़लत दलाइल बयान करके हक़ीक़त को ना छुपाया जाए और शबे क़द्र की एहमियत को कम ना किया जाए ।
🌟 ”और सही में ग़लत को न मिलाओ, और सच को न छुपाओ ; हालाँकि तुम (सच्चाई) जानते हो।”
📙 अल कुरआन 02:42
📌 हमें हर वक़्त अल्लाह के गज़ब से डरते रहना चाहिए और सहीह व सच्ची बात ही अपनी ज़बान से निकलना चाहिए अल्लाह हम सब को सही समझने और सही बोलने की तौफ़ीक अता फ़रमाए ।
🤲 आमीन या रब्बिल आलमीन 🤲
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